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 मैं जी नहीं रहा जीत या हार के लिए क्योंकि बीत चुका जीवन व्यवहार के लिए। सोचा कि सत्य का युग नहीं होता,  सत्य हर पल हर युग सत्य ही होता। किंचित भयभीत न हुआ असत्य के संहार के लिए,  चूंकि जी नहीं रहा , जीत या हार के लिए।। धर्म के दावानल में खेल रहा,  सत्ताओं के घिनौने वार झेल रहा। उद्वेग की अभिव्यक्ति,  या लालच की भक्ति में, असत्य पर प्रहार कर रहा,  संसार की विरक्ति में। रिश्तों के उपसंहार के लिए, नहीं जी रहा जीत या हार के लिए। क्यों प्रतियोगिता आवश्यक,  क्यों द्वंद ही निर्णायक? सबकी अपनी मंजिले,  सबके अपने उपवन, सजल हार पर क्यों नहीं इनके नयन?? नहीं जी रहा संहार के लिए, न ही व्यवहार के लिए। क्योंकि जी नहीं रहा जीत या हार के लिएं..... एक नागा का दर्शन