"मस्त में जितना हूँ त्रस्त में उतना हूँ,

 "मस्त में जितना हूँ त्रस्त में उतना हूँ,

 विचारो से निर्वस्त्र में उतना हूँ,

अवसाद आवरण की असंख्य अनावृष्टि ,

 उलझे ख़यालो से ध्वस्त में जितना हूँ।

चातुर्य का वणिक हूँ मैं, 

पर विशाल होकर भी क्षणिक हूँ मैं, 

चितेरे कागज के लेख लिखना बेहतर है, भावनाओ और सहजता का वहीं

बिखरा खाली पृष्ठ हूँ मैं।

कला मेरी अनाथ बैठी है बाजारों की फ़ूहडता से, समाज की समझ परे है इज़्ज़त की हुल्लड़ता से, अब मैं बेड़ियों में जकड़ा साहसी बनने की कोशीश में,

किंचित तथ्यों में स्वयं भी बहुत भ्रष्ट ही उतना हूँ मै।

-ध्यानश्री शैलेश

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