Posts

Showing posts from May, 2025

"मस्त में जितना हूँ त्रस्त में उतना हूँ,

 "मस्त में जितना हूँ त्रस्त में उतना हूँ,  विचारो से निर्वस्त्र में उतना हूँ, अवसाद आवरण की असंख्य अनावृष्टि ,  उलझे ख़यालो से ध्वस्त में जितना हूँ। चातुर्य का वणिक हूँ मैं,  पर विशाल होकर भी क्षणिक हूँ मैं,  चितेरे कागज के लेख लिखना बेहतर है, भावनाओ और सहजता का वहीं बिखरा खाली पृष्ठ हूँ मैं। कला मेरी अनाथ बैठी है बाजारों की फ़ूहडता से, समाज की समझ परे है इज़्ज़त की हुल्लड़ता से, अब मैं बेड़ियों में जकड़ा साहसी बनने की कोशीश में, किंचित तथ्यों में स्वयं भी बहुत भ्रष्ट ही उतना हूँ मै। -ध्यानश्री शैलेश

मैं जा रहा हूं

 मैं जा रहा हूं इस दुनिया से जहां काल सीमा मायने रखती ,   प्रेम सुगंध भरी वायु नहीं मै जा रहा हूं कि जलन से प्रतिद्वंदी बन जाए चलेगा किंतु जला नहीं सकते झूठे मानदंड समाज के मै जा रहा हूं मै तो घुल जाता तरल जल सा सबके भीतर  किंतु लोग सिमटे ठहरे हुए रुके पानी की मानिंद  बदबू जो दे रहे मै जा रहा हूं सबको ठहरा देता वास्तविक ठेठ धरा पर कि सबका बोझ सह सकता कि लोग जहां ठहरते वही गड्ढा भले खोद देते मैं जा रहा हूं जहां उड़ान हो अंतहीन कौन जाने कि कौन जा रहा आकाश सा हृदय आकाश में लिए रहो बंधे तुम सब उन बंधनों में जहां न वायु का बहाव हो न अग्नि का ताप  न ही जल का शीतल सानिध्य न ही भूमि का टेका  और न हो आकाश का विस्तार  सिमटे, सिकुड़े, कुंठित जीवन से दूर मैं जा रहा हूं  निरंतर उन ऊंचाइयों में  जहां हिमालय भी दिखता नीचे  उन गहराइयों में जहां सागर भी  आरपार गहराई में तल से बाहर हो जाता उस तपस में जहां स्वयं की भस्म से श्रृंगार स्वयं का करता नित उस पवन के कण कण में बिखेरता हुआ खुदको स्मृतियों को बिखेरता हुआ मै जा रहा हूं चलना तो साथ था जिन्हे...

सारे मानक टूट गए

 सारे मानक टूट गए, मर्यादा के धागे रूठ गए देव खड़े अदालत में, विषवमन को तुच्छ तभी जुट गए। कलियुग की भ्रांति हो या द्वापर की क्रांति हो कपट कुरोग कुशासन के विषाणु मन में घुल रहे। चौसर की बाजी हो या शर्तो की पतंगबाजी हो, घर की लज्जा दांव में निंद्रा कब पतंगी छांव में, सहज सिद्धांतो को भूल गए? सारे मानक टूट गए मर्यादा के धागा टूट गए।। - ध्यानश्री शैलेश