मैं जा रहा हूं

 मैं जा रहा हूं

इस दुनिया से जहां काल सीमा मायने रखती , 

 प्रेम सुगंध भरी वायु नहीं

मै जा रहा हूं

कि जलन से प्रतिद्वंदी बन जाए चलेगा किंतु जला नहीं सकते झूठे मानदंड समाज के

मै जा रहा हूं

मै तो घुल जाता तरल जल सा सबके भीतर 

किंतु लोग सिमटे ठहरे हुए रुके पानी की मानिंद

 बदबू जो दे रहे

मै जा रहा हूं

सबको ठहरा देता वास्तविक ठेठ धरा पर कि सबका बोझ सह सकता

कि लोग जहां ठहरते वही गड्ढा भले खोद देते

मैं जा रहा हूं

जहां उड़ान हो अंतहीन

कौन जाने कि कौन जा रहा

आकाश सा हृदय आकाश में लिए

रहो बंधे तुम सब उन बंधनों में

जहां न वायु का बहाव हो

न अग्नि का ताप 

न ही जल का शीतल सानिध्य

न ही भूमि का टेका 

और न हो आकाश का विस्तार 

सिमटे, सिकुड़े, कुंठित जीवन से दूर

मैं जा रहा हूं 

निरंतर उन ऊंचाइयों में 

जहां हिमालय भी दिखता नीचे 

उन गहराइयों में

जहां सागर भी 

आरपार गहराई में तल से बाहर हो जाता

उस तपस में जहां स्वयं की भस्म से श्रृंगार स्वयं का करता नित

उस पवन के कण कण में बिखेरता हुआ खुदको

स्मृतियों को बिखेरता हुआ

मै जा रहा हूं

चलना तो साथ था जिन्हें

वो उलझ गए, ठहर गए, अनदेखा कर मुझको 

कि पंचतत्व में बने रहना कितना सरल

कि पंचतत्व से परे होना एक 

महायोग

मैं जा रहा हूं

"शिवत्व की ओर"

महा कैलाश की ओर

-ध्यानश्री शैलेश 

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